डायनामाइट के आविष्कारक और स्वीडिश उद्योगपति अल्फ्रेड नोबेल
वाकया कुछ यूं है कि
1888 में अल्फ्रेड नोबेल के भाई लुडविग नोबेल का मात्र 57 साल की उम्र में हृदय रोग
और सांस की बीमारी से निधन हो गया. कई अखबारों ने लुडविग नोबेल को अल्फ्रेड नोबेल समझ
लिया और गलती से उन्होंने अल्फ्रेड नोबेल के मौत की खबर छाप दी. रोज की तरह अल्फ्रेड
अपने लैब में काम कर रहे थे तभी उन्हें एक फ्रांसीसी अखबार में यह समाचार पढ़ने को मिला,
जिसकी हेडिंग थी – “मौत के सौदागर की मौत”. शोक संदेश देते हुए उस अखबार में लिखा हुआ
था कि ‘डॉ. अल्फ्रेड नोबेल, जो पहले से कहीं अधिक तेजी से लोगों को मारने के तरीके
खोजकर अनाप-शनाप दौलत कमाकर अमीर बने, का कल देहांत हो गया.’
अल्फ्रेड, जो उस समय
केवल 55 साल के थे, ने जब अपने लिए ‘मौत का सौदागर’ संबोधन पढ़ा तो उनका कलेजा छलनी-सा
हो गया. उनकी आंखों के सामने वह परिदृश्य दिखाई देने लगा, जो उनके वास्तविक मौत पर
होने वाला था. खुद को संभालने के बाद उन्होंने यह संकल्प लिया कि वह कतई इस तरह से
याद किए जाने वाला नही बनना चाहेंगे.
कहा जाता है कि इस वाकये
ने अल्फ्रेड को सामाजिक कल्याण और विश्व शांति के लिए काम करने को प्रेरित किया. ‘मौत
के सौदागर’ वाली अपनी छवि को बदलने के लिए उन्होंने विश्व शांति और मानव कल्याण के
लिए अपना तन-मन-धन लगा दिया. इस घटना के आठ साल बाद जब अल्फ्रेड की वास्तव में मौत
हुई तब उनकी नुक्ताचीनी करने वाले यह जानकर हैरान रह गए कि उन्होंने अपनी चल-अचल संपत्ति
का 94 प्रतिशत भाग उन व्यक्तियों को पुरस्कृत करने के लिए रख दिया है, जिन्होंने शांति,
भौतिकी, रसायन विज्ञान, चिकित्सा और साहित्य के क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ काम किया हो.
आज नोबेल पुरस्कार विश्व
का सबसे बड़ा सम्मान है. अल्फ्रेड आज ‘मौत के सौदागर’ के रूप में नहीं बल्कि महान नोबेल
पुरस्कार के संस्थापक के रूप में याद किए जाते हैं. आज इन्हीं अल्फ्रेड नोबेल का जन्मदिन
है, जिनके नाम से मिलने वाला पुरस्कार दुनिया भर के तमाम वैज्ञानिकों, साहित्यकारों,
अर्थशास्त्रियों, पर्यावरणविदों, शांति प्रेमियों आदि को मानव जाति की उन्नति से संबंधित
काम करने के लिए प्रेरित/प्रोत्साहित करता है.
इमानुएल नोबेल ने अपने
बच्चों को पढ़ाने के लिए घर पर ही निजी ट्यूटर नियुक्त किए. अल्फ्रेड कद-काठी से बेहद
दुबला-पतला बालक था, लेकिन उसका दिमाग काफी तेज था. उसने अंग्रेजी साहित्य, भौतिकी
और रसायन विज्ञान के साथ-साथ रूसी, फ्रेंच, स्वीडिश, जर्मन, अंग्रेजी भाषाएं सीखकर
अपने ट्यूटरों के समक्ष अपनी प्रतिभा की अद्भुत छाप छोड़ी. अल्फ्रेड पढ़ने के लिए स्कूल
भी गया लेकिन उसे किसी यूनिवर्सिटी में पढ़ने का मौका नहीं मिला. अल्फ्रेड के पिता जब
कुछ सरकारी क़ानूनों के उलट-फेर की वजह से व्यवसाय में दिवालिया हो गए तब आर्थिक तंगी
के कारण उनका परिवार स्वीडन वापस आ गया. अल्फ्रेड ने पिता के कारोबार को आगे बढ़ाने
के उद्देश्य से और रसायन विज्ञान का गहन अध्ययन करने के लिए 1849 में पेरिस की यात्रा
की.
पेरिस में ही अध्ययन
के दौरान अल्फ्रेड की मुलाकात इटैलियन रसायन विज्ञानी एस्केनियो सोबरेरो से हुई, जिसने
नाइट्रोग्लिसरीन का आविष्कार किया था. नाइट्रोग्लिसरीन पीले रंग का एक बेहद विस्फोटक
तरल पदार्थ था. यह बारूद की तुलना में कहीं ज्यादा शक्तिशाली और खतरनाक था. अल्फ्रेड
नाइट्रोग्लिसरीन का इस्तेमाल अपने व्यवसाय में करना चाहते थे, जबकि इसके आविष्कारक
सोबरेरो ने इसके व्यवसायिक इस्तेमाल का कड़ा विरोध किया और चेताते हुए कहा कि इसका उपयोग
जानलेवा साबित हो सकता है. लेकिन अल्फ्रेड कहां ठहरने वाले थे, उनको नाइट्रोग्लिसरीन
के अध्ययन और उसके व्यवसायिक इस्तेमाल में गहरी दिलचस्पी पैदा हो चुकी थी.
स्वीडन लौटने के बाद
अल्फ्रेड ने नाइट्रोग्लिसरीन का अध्ययन करना शुरू किया. अल्फ्रेड नाइट्रोग्लिसरीन को
ऊर्जा के एक प्रचंड स्रोत के रूप में देखते थे. उनका मानना था कि अगर इस ऊर्जा स्रोत
पर काबू पा लिया जाए तो एक शक्तिशाली विस्फोटक तैयार करके ढ़ेर सारा धन कमाया जा सकता
है. अल्फ्रेड लगातार नाइट्रोग्लिसरीन संबंधी प्रयोगों में जुटे रहे. इसमें उनको थोड़ी-बहुत
कामयाबी भी मिल चुकी थी. 1864 में ऐसे ही एक प्रयोग के दौरान अल्फ्रेड के लैब में भयानक
विस्फोट हो गया, जिसमें अल्फ्रेड के छोटे भाई एमिल समेत पांच लोग मारे गए. इस भयानक
दुर्घटना के बावजूद अल्फ्रेड ने हिम्मत नहीं हारी और अपने प्रयोग जारी रखे.
1866 में अल्फ्रेड अपने
लैब में एक प्रयोग कर रहे थे. अल्फ्रेड एक टेस्ट ट्यूब में भरे नाइट्रोग्लिसरीन को
दूसरे टेस्ट ट्यूब में उड़ेलना चाहते थे, तभी एकाएक टेस्ट ट्यूब उनके हाथ से फिसलकर
नीचे गिर गई. सौभाग्य से टेस्ट ट्यूब एक डिब्बे में गिरी, जिसमें केज़लगुहर नामक पदार्थ
भरा था. केज़लगुहर ने नाइट्रोग्लिसरीन को सोख लिया, नहीं तो इतना बड़ा विस्फोट होता
कि अल्फ्रेड समेत लैब में कार्यरत सभी लोग मारे जाते. यह देखकर अल्फ्रेड को बहुत अचंभा
हुआ. केज़लगुहर में नाइट्रोग्लिसरीन के मिलने से जो पेस्ट बना था, वह भी एक विस्फोटक
था लेकिन तरल नाइट्रोग्लिसरीन जितना नहीं! अल्फ्रेड के दिमाग में यह विचार कौंधा क्यों
न केज़लगुहर का ही इस्तेमाल नाइट्रोग्लिसरीन को नियंत्रित और सुरक्षित बनाने के लिए
किया जाए. कालांतर में अनेक प्रायोगिक सुधारों के बाद अल्फ्रेड ने इस पेस्ट को कागज
में लिपटे हुए छड़ों के रूप में तब्दील कर दिया और उसका नाम रखा –‘डायनामाइट’.
अल्फ्रेड ने डायनामाइट
को ट्रिगर यानी सक्रिय करने के लिए डेटोनेटर भी बनाया, जिससे डायनामाइट का इस्तेमाल
करना आसान और सुरक्षित हो गया. डायनामाइट का आविष्कार करके न सिर्फ अल्फ्रेड ने पूरी
दुनिया को हैरत में डाल दिया, बल्कि बेशुमार दौलत भी कमाई. वे ‘लॉर्ड ऑफ डायनामाइट’
के रूप में जल्द ही मशहूर हो गए. अल्फ्रेड ने डायनामाइट के साथ-साथ इग्नाइटर, ब्लास्टिंग
जिलेटिन, धुंआ रहित बारूद, बैलिस्टाइट सहित अनेक विस्फोटी पदार्थों का आविष्कार किया.
ऐसा नहीं है कि अल्फ्रेड
ने सिर्फ विस्फोटकों से संबंधित आविष्कार ही किए थे, उन्होंने गैस मीटर, रेशम, सिंथेटिक
रबर, चमड़ा और रोगन के विकल्प तैयार करने के तरीकों, सेफ़्टी फ्यूज, पानी या अन्य तरल
पदार्थों मापने के लिए उपकरणों, साइकिल के लिए शिफ्ट गियर आदि पर भी काम किया. उनके
नाम से दुनिया भर में कुल 355 आविष्कार दर्ज हैं.खदानों, सुरंगों की खुदाई और पत्थर
तोड़ने में तो अल्फ्रेड द्वारा अविष्कृत डायनामाइट और बाकी विस्फोटक काम आते ही थे,
बाद में युद्धों में भी उनके विस्फोटकों का व्यापक पैमाने पर इस्तेमाल होने लगा था.
दुनिया उन्हें हत्यारा मानती थी. उनके जीवनकाल में ही उन्हें खुलेआम ‘मौत का घूमता
विक्रेता’, ‘मनुष्य के रूप में शैतान’ कहा जाता था. वे स्वयं इस बात से दु:खी थे कि
उनके आविष्कारों का इस्तेमाल विकास की बजाय विनाश में हो रहा है.
एक बेहद प्रचलित किवदंती
है कि 13 अप्रैल, 1888 को विभिन्न अखबारों में गलती से छपी उनकी मौत की खबर ने अल्फ्रेड
को विश्व शांति से जुड़े कामों और बहुचर्चित नोबेल पुरस्कार शुरू करने का विचार दिया,
जिसका उल्लेख हम ऊपर कर चुके हैं. यह कहानी कितनी सच है, कहा नहीं जा सकता लेकिन निश्चित
रुप से अल्फ्रेड 1888 से पहले भी विश्व शांति और मानव कल्याण से जुड़े कार्यों में खासे
सक्रिय थे. दरअसल, अल्फ्रेड नोबेल का जीवन बेहद जटिल और बहुआयामी था. उनके व्यक्तित्व,
कुंवारेपन, आविष्कारों आदि पर तमाम दंतकथाएं और किवदंतियां मौजूद हैं. हकीकत क्या है?
किसी को नहीं मालूम.
10 दिसंबर, 1896 को
इटली में अल्फ्रेड नोबेल की मृत्यु हो गई. अपनी मृत्यु से पहले अपने वसीयतनामे में
उन्होंने अपनी 94 फीसदी दौलत उन लोगों को पुरस्कृत करने के लिए रख दिया था, जिन्होंने
विश्व शांति, भौतिकी, रसायन विज्ञान, चिकित्सा और साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय
काम किया हो. अब हर साल 10 दिसंबर को अल्फ्रेड नोबेल की पुण्यतिथि पर यह पुरस्कार दिया
जाता है. काफी हद तक इसी पुरस्कार की बदौलत आज सारी दुनिया उन्हें मौत के सौदागर के
रूप में नहीं, बल्कि एक महान रसायन विज्ञानी और शांति के संरक्षक के रूप में याद करती
है.
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